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विश्वास रखिए, सही फैसले कीजिए!

विश्वास रखिए, सही फैसले कीजिए!

‘विश्वास के साथ माँगते रहिए और ज़रा भी शक न कीजिए।’—याकूब 1:6.

गीत: 54, 42

1. किस वजह से कैन ने गलत फैसला किया और इसका क्या अंजाम हुआ?

कैन को एक ज़रूरी फैसला करना है। वह अपनी बुरी इच्छाओं को काबू में करेगा या बुरी इच्छाओं को खुद पर हावी होने देगा? वह जो भी फैसला करेगा, उसका असर उसकी पूरी ज़िंदगी पर होगा। बाइबल बताती है कि कैन ने अपनी बुरी इच्छाओं को खुद पर हावी होने दिया और गलत कदम उठाया। नतीजा यह हुआ कि उसने अपने भाई हाबिल का खून किया और अपने सृष्टिकर्ता के साथ उसका रिश्ता टूट गया।—उत्प. 4:3-16.

2. सही फैसले करना क्यों ज़रूरी है?

2 उसी तरह हमें भी ज़िंदगी में कई फैसले करने होते हैं, कुछ बड़े तो कुछ छोटे। कई फैसलों का हमारी ज़िंदगी पर गहरा असर होता है। जब हम सही फैसले करेंगे, तो मुमकिन है कि हमारी ज़िंदगी में समस्याएँ कम होंगी और हम काफी हद तक चैन से रह पाएँगे। वहीं जब हम गलत फैसले करेंगे, तो हमारी ज़िंदगी में ज़्यादा समस्याएँ होंगी और हमें निराशा हाथ लगेगी।—नीति. 14:8.

3. (क) सही फैसले करने के लिए हमें किस पर विश्वास रखना चाहिए? (ख) हम किन सवालों पर गौर करेंगे?

3 सही फैसले करने में क्या बात हमारी मदद करेगी? परमेश्वर पर विश्वास, यानी हमें यह भरोसा होना चाहिए कि वह हमारी मदद करना चाहता है और सही फैसले करने के लिए वह हमें बुद्धि देगा। हमें उसके वचन पर भी विश्वास रखना चाहिए। हमें यकीन होना चाहिए कि उसमें दी सलाह एकदम सही है। (याकूब 1:5-8 पढ़िए।) जितना हम यहोवा के करीब आएँगे और उसके वचन से लगाव रखेंगे, उतना ही हमारा यह भरोसा बढ़ेगा कि यहोवा जो भी कहता है, उसमें हमारी ही भलाई है। ऐसे में कोई भी फैसला करने से पहले हम यह जानने की कोशिश करेंगे कि बाइबल उस बारे में क्या कहती है। फिर सवाल उठता है कि हम सही फैसले करने की अपनी काबिलीयत कैसे बढ़ा सकते हैं? क्या कभी हमें अपने फैसले बदलने पड़ सकते हैं?

सभी को फैसले करने होते हैं

4. (क) आदम को कौन-सा फैसला करना था? (ख) उसके क्या अंजाम हुए?

4 दरअसल अहम फैसले करने का सिलसिला इंसान की शुरूआत से ही चला आ रहा है। पहले पुरुष आदम को फैसला करना था कि वह अपने सृष्टिकर्ता यहोवा की बात सुनेगा या अपनी पत्नी हव्वा की। आदम ने अपनी पत्नी हव्वा की सुनी, जिस वजह से उसने बहुत गलत फैसला किया। अंजाम यह हुआ कि उसे फिरदौस से बेदखल कर दिया गया और बाद में उसकी मौत भी हो गयी। उसके इस गलत फैसले की वजह से आज हम भी दुख-तकलीफें झेल रहे हैं।

5. यहोवा चाहता है कि हम खुद फैसले करें, इस बारे में हमारी सोच कैसी होनी चाहिए?

5 कुछ लोग शायद सोचें कि अगर हमें फैसले न लेने पड़ते, तो ज़िंदगी बहुत मज़ेदार होती। क्या आपको भी ऐसा लगता है? अगर हाँ, तो याद रखिए, यहोवा ने हमें रोबोट की तरह नहीं बनाया, जो न सोच सकता है, न कोई फैसला कर सकता है। यहोवा ने हमें अपना वचन बाइबल दिया है, जिससे हम सही फैसले करना सीखते हैं। वह चाहता है कि हम खुद फैसले करें और यह ज़िम्मेदारी हमें हलके में नहीं लेनी चाहिए। ज़रा आगे बताए उदाहरणों पर गौर कीजिए।

6, 7. (क) इसराएलियों को कौन-सा फैसला करना था? (ख) उनके लिए यह फैसला करना क्यों मुश्किल था? (लेख की शुरूआत में दी तसवीर देखिए।)

6 जब इसराएली वादा किए हुए देश पहुँचे, तब उन्हें एक फैसला करना था, जो हमें शायद आसान-सा लगे, लेकिन उनके लिए बहुत अहम फैसला था, यह उनकी ज़िंदगी और मौत का सवाल था। उन्हें चुनना था कि वे यहोवा की उपासना करेंगे या झूठे देवी-देवताओं की। (यहोशू 24:15 पढ़िए।) न्यायियों के दिनों में इसराएलियों ने बार-बार गलत फैसले किए। वे यहोवा की उपासना करना छोड़ देते और झूठे देवी-देवताओं की उपासना करने लगते। (न्यायि. 2:3, 11-23) बाद में भविष्यवक्ता एलियाह के दिनों में फिर उन्हें यह फैसला करना था कि वे यहोवा की सेवा करेंगे या झूठे देवता बाल की। (1 राजा 18:21) आप शायद सोचें कि यह तो कोई मुश्किल फैसला नहीं था, यहोवा की सेवा करना तो हमेशा अच्छा ही होता है। दरअसल कोई भी समझदार आदमी बाल देवता की उपासना नहीं करेगा। मगर इसराएली यह फैसला नहीं कर पा रहे थे। बाइबल में लिखा है कि वे “दो विचारों में लटके” हुए थे। एलियाह ने बुद्धि से काम लिया और लोगों को बढ़ावा दिया कि वे सच्चे परमेश्वर यहोवा की उपासना करने का फैसला करें।

7 उन इसराएलियों के लिए सही फैसला करना क्यों मुश्किल था? पहली बात, उन्हें यहोवा पर विश्वास नहीं था और वे उसकी सुनना नहीं चाहते थे। उन्होंने वक्‍त निकालकर उसके बारे में सीखने या उससे बुद्धि पाने की कोशिश नहीं की। न ही उन्हें यहोवा पर भरोसा रह गया था। अगर वे यहोवा के बारे में सीखते, तो उस आधार पर वे सही फैसला ले पाते। (भज. 25:12) यही नहीं, इसराएली आस-पास के राष्ट्रों के लोगों के रंग में रंग गए थे। वे उनकी तरह सोचने लगे थे। वे उनमें इस कदर घुल-मिल गए कि राष्ट्रों के लोग इसराएलियों के लिए फैसले करने लगे थे। नतीजा यह हुआ कि इसराएलियों ने उनके तौर-तरीके अपना लिए और उनके झूठे देवी-देवताओं की उपासना करने लगे। यह ऐसा काम था, जिसे न करने के बारे में यहोवा ने सालों पहले ही उन्हें खबरदार कर दिया था।—निर्ग. 23:2.

कहीं दूसरे तो हमारे लिए फैसले नहीं ले रहे?

8. हम इसराएलियों से क्या ज़रूरी सबक सीखते हैं?

8 इसराएलियों से हमें सबक मिलता है कि सही फैसले करने के लिए परमेश्वर के वचन से मार्गदर्शन लेना ज़रूरी है। गलातियों 6:5 हमें याद दिलाता है कि हममें से हर एक को अपने लिए खुद फैसला करना होगा। यह ज़िम्मेदारी हम किसी और को नहीं दे सकते। हमें खुद जानना होगा कि परमेश्वर की नज़र में क्या सही है और फिर वही करना होगा।

9. फैसले लेने की अपनी ज़िम्मेदारी दूसरों पर डाल देने में क्या खतरा है?

9 कभी-कभी हम फैसला करने की अपनी ज़िम्मेदारी दूसरों पर डाल देते हैं। किस तरह? दूसरों की बातों में आकर गलत फैसला लेकर। (नीति. 1:10, 15) यह खतरनाक हो सकता है। यह हमारी ज़िम्मेदारी है कि हम बाइबल के आधार पर ढाले गए अपने ज़मीर की सुनें। अगर हम फैसले लेने की अपनी ज़िम्मेदारी दूसरों पर डाल दें, तो एक तरह से हम उनके पीछे चल रहे होंगे। इसके बहुत बुरे अंजाम हो सकते हैं।

10. पौलुस ने गलातिया के मसीहियों को किस बात से खबरदार किया?

10 प्रेषित पौलुस ने गलातिया के मसीहियों को खबरदार किया कि वे ऐसा न होने दें कि दूसरे उनके लिए फैसला करें। (गलातियों 4:17 पढ़िए।) वहाँ के कुछ भाई-बहन मंडली में दूसरों के लिए फैसले लेने की कोशिश कर रहे थे। इसके पीछे उनका क्या इरादा था? दरअसल वे मतलबी थे और चाहते थे कि मंडली में भाई-बहन प्रेषितों की बात सुनने के बजाय उनके पीछे हो लें। वे नम्र नहीं थे और उन्होंने इस बात की कदर नहीं की कि भाइयों को अपने फैसले खुद करने का हक है।

11. हम फैसला लेने के मामले में दूसरों की कैसे मदद कर सकते हैं?

11 हम सब प्रेषित पौलुस से बहुत कुछ सीख सकते हैं। वह जानता था कि भाइयों को अपने फैसले खुद करने का हक है और उसने उनके इस हक की कदर की। (2 कुरिंथियों 1:24 पढ़िए।) आज प्राचीन भी इस बात को ध्यान में रख सकते हैं, खासकर जब वे किसी को निजी मामले में सलाह देते हैं। वे भाई-बहनों को यह तो बताते हैं कि उस मामले पर बाइबल में क्या जानकारी दी गयी है, लेकिन वे उनके लिए फैसला नहीं करते। वह इसलिए कि हर एक को अपने फैसले के अच्छे-बुरे नतीजों का खुद सामना करना होगा। कहने का मतलब यह है, हम भाई-बहनों को यह तो समझा सकते हैं कि किसी हालात में बाइबल का कौन-सा सिद्धांत लागू होता है, मगर उस हालात में उन्हें क्या फैसला करना है, यह ज़िम्मेदारी उनकी है। उनके लिए फैसला करने का हक हमें नहीं है। जब वे खुद सही फैसले लेते हैं, तो उन्हें फायदा होता है। हमें कभी यह नहीं सोचना चाहिए कि हम अपने भाई-बहनों के लिए तय कर सकते हैं कि उन्हें क्या करना चाहिए और क्या नहीं।

प्यार करनेवाले प्राचीन भाई-बहनों को खुद फैसले करने में मदद करते हैं (पैराग्राफ 11 देखिए)

भावनाओं में बहकर फैसले मत कीजिए

12, 13. जब हम गुस्से में हों या निराश हों, तब अपने दिल की सुनना क्यों सही नहीं होगा?

12 आज ज़्यादातर लोगों का मानना है कि बस अपने दिल की सुनो। मगर यह खतरनाक हो सकता है। बाइबल हमें खबरदार करती है कि हम भावनाओं में बहकर या अपने दिल की सुनकर फैसले न करें। (नीति. 28:26) बाइबल में ऐसे कई उदाहरण दिए गए हैं, जिनसे पता चलता है कि अपने दिल की सुनने के बुरे अंजाम हो सकते हैं। हम परिपूर्ण नहीं हैं और हमारा “दिल सबसे बड़ा धोखेबाज़ है और यह उतावला होता है।” हम इस पर भरोसा नहीं कर सकते। (यिर्म. 3:17; 13:10; 17:9; 1 राजा 11:9) अगर हम फैसला करते वक्‍त बस अपने दिल की सुनेंगे, तो क्या हो सकता है?

13 बेशक हम मसीहियों के लिए दिल बहुत मायने रखता है, क्योंकि हमें आज्ञा दी गयी है कि हम अपने पूरे दिल से यहोवा से प्यार करें और अपने पड़ोसी से वैसे ही प्यार करें, जैसे खुद से करते हैं। (मत्ती 22:37-39) लेकिन जैसे पिछले पैराग्राफ में दी आयतों से पता चलता है, हमारा दिल जो कहता है, अगर हम वही सोचने लगें और वैसे ही काम करने लगें, तो यह खतरनाक हो सकता है। मान लीजिए, हम गुस्से में कोई फैसला लेते हैं। क्या हमारा फैसला सही होगा? शायद नहीं। (नीति. 14:17; 29:22) उसी तरह अगर हम निराश हों, तो भी हमारे लिए सही फैसला करना मुश्किल होगा। (गिन. 32:6-12; नीति. 24:10) इस वजह से कोई ज़रूरी फैसला करते वक्‍त हमें भावनाओं में नहीं बहना चाहिए। इसके बजाय हमें “परमेश्वर के कानून” के मुताबिक अपनी सोच ढालनी चाहिए।—रोमि. 7:25.

कब फैसला बदलना सही होगा?

14. किस बात से पता चलता है कि कभी-कभी अपने फैसले बदलना सही होता है?

14 हमें सही फैसले करने चाहिए। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि एक बार जो फैसला ले लिया, सो ले लिया। कभी-कभी हमें अपने फैसले पर दोबारा गौर करना पड़ सकता है और शायद उसे बदलना भी पड़े। कई बार यहोवा ने भी ऐसा ही किया। ध्यान दीजिए कि योना के दिनों में यहोवा नीनवे के लोगों के साथ कैसे पेश आया। योना 3:10 में लिखा है, “जब सच्चे परमेश्वर ने उनके कामों को देखा कि किस तरह वे अपनी दुष्ट राहों से फिर गए हैं, तो उसने अपने फैसले पर दोबारा गौर किया। और वह नीनवे पर कहर नहीं लाया।” नीनवे के लोगों का रवैया बदल गया था और उन्होंने बुरे काम करना छोड़ दिया था। यह देखकर यहोवा ने अपना फैसला बदल दिया। इससे पता चलता है कि यहोवा समझदारी से काम लेता है, वह नम्र और दयालु परमेश्वर है। यहोवा उन इंसानों जैसा नहीं है, जो गुस्से में आकर कोई भी फैसला ले लेते हैं।

15. हमें क्यों अपना फैसला बदलना पड़ सकता है?

15 कई बार अपने फैसलों पर दोबारा गौर करना अच्छा होता है, जैसे हालात बदलने पर। यहोवा ने भी हालात बदलने पर कई बार अपने फैसले बदले। (1 राजा 21:20, 21, 27-29; 2 राजा 20:1-5) इसके अलावा जब हमें कोई नयी जानकारी मिलती है, तब भी हमें अपना फैसला बदलना पड़ सकता है। ज़रा दाविद के बारे में सोचिए। उसे शाऊल के पोते मपीबोशेत के बारे में गलत जानकारी दी गयी थी और उसी के हिसाब से उसने फैसला लिया था। मगर बाद में जब दाविद को सही-सही जानकारी दी गयी, तो उसने अपना फैसला बदल दिया। (2 शमू. 16:3, 4; 19:24-29) कभी-कभी हमारे लिए भी ऐसा करना अच्छा हो सकता है।

16. (क) कोई फैसला करते वक्‍त हम कौन-सी बातें ध्यान में रख सकते हैं? (ख) हमें अपने फैसलों पर क्यों दोबारा गौर करना चाहिए? (ग) ज़रूरत पड़ने पर हमें क्या करने के लिए तैयार रहना चाहिए?

16 बाइबल कहती है कि जब कोई अहम फैसला लेना हो, तो जल्दबाज़ी नहीं करनी चाहिए। (नीति. 21:5) हमें सारी बातों के बारे में अच्छी तरह सोचना चाहिए, ताकि हम सही फैसला कर सकें। (1 थिस्स. 5:21) कोई फैसला लेने से पहले परिवार के मुखिया को बाइबल और उस पर आधारित किताबों-पत्रिकाओं में खोजबीन करनी चाहिए। परिवार के बाकी सदस्यों की राय लेना भी अच्छा होगा। याद है, परमेश्वर ने अब्राहम से गुज़ारिश की थी कि वह अपनी पत्नी की सुने। (उत्प. 21:9-12) प्राचीन भी खोजबीन करते हैं। जब उन्हें कोई नयी जानकारी मिलती है, जिससे पता चलता है कि उन्हें अपना फैसला बदलना है, तब वे ऐसा करने से कतराते नहीं। वे यह नहीं सोचते कि इससे उनकी इज़्ज़त कम हो जाएगी। यह दिखाता है कि वे नम्र हैं और अपनी हदें जानते हैं। क्या हम सब को भी उनकी तरह नहीं होना चाहिए? इससे मंडली में शांति और एकता बनी रहेगी।—प्रेषि. 6:1-4.

आपने जो करने की सोची है, वह कीजिए

17. सही फैसला लेने और उसमें कामयाब होने में क्या बात हमारी मदद करेगी?

17 कुछ फैसले बहुत अहम होते हैं। जैसे, यह फैसला करना कि आप शादी करेंगे या नहीं या फिर आप किससे शादी करेंगे। यह भी एक अहम फैसला है कि आप पूरे समय की सेवा कब शुरू करेंगे। ऐसे फैसले करने से पहले हमें उस बारे में अच्छी तरह सोचना चाहिए और यहोवा से प्रार्थना करनी चाहिए। इसमें वक्‍त लग सकता है, लेकिन अगर हम सही फैसला लेना चाहते हैं, तो ज़रूरी है कि हम यहोवा पर भरोसा रखें, यह जानने की कोशिश करें कि इस बारे में वह क्या कहता है और फिर वैसा ही करें। (नीति. 1:5) यहोवा ने बाइबल में हमारे लिए सबसे बढ़िया सलाह दी है। हमें इसमें खोजबीन करनी चाहिए और यहोवा से प्रार्थना करनी चाहिए कि वह हमें सही राह दिखाए। वह हममें ऐसे गुण पैदा कर सकता है कि हम उसकी मरज़ी के मुताबिक फैसला कर सकें। लेकिन अहम फैसला करने से पहले हमें खुद से पूछना चाहिए, ‘क्या मेरे इस फैसले से ज़ाहिर होगा कि मुझे यहोवा से प्यार है? क्या इससे मेरे परिवार में खुशी और शांति बढ़ेगी? क्या इससे यह ज़ाहिर होगा कि मैं सब्र से काम लेता हूँ और मुझे दूसरों की भलाई की फिक्र है?’

18. यहोवा क्यों चाहता है कि हम अपने फैसले खुद लें?

18 यहोवा हमारे साथ कोई ज़बरदस्ती नहीं करता। हम उससे प्यार करेंगे और उसकी सेवा करेंगे या नहीं, यह उसने हम पर छोड़ा है। यह हक और ज़िम्मेदारी वह हमसे कभी नहीं छीनता। (यहो. 24:15; सभो. 5:4) लेकिन वह यह ज़रूर चाहता है कि जब हम उसके वचन में दिए सिद्धांतों के आधार पर फैसला कर लेते हैं, तो उसके मुताबिक काम करें। जब हमें यह भरोसा होता है कि यहोवा से मिलनेवाली हिदायतें और उसके वचन में दिए सिद्धांत सही होते हैं, तब हम जो भी फैसले लेंगे, वे सही होंगे और हम यह दिखाएँगे कि हम अपनी बातों में डाँवाँडोल नहीं, बल्कि स्थिर हैं।—याकू. 1:5-8; 4:8.